एक अनोखी पुलिस व्यवस्था

उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में पुलिस कार्यों का निर्वहन करने वाली राजस्व पुलिस एक अदभुत पुलिस व्यवस्था है. प्रदेश के पर्वतीय इलाकों में मुख्य मोटर मार्गों पर स्थित नगरों व् कस्बों को छोड़कर शेष 60% इलाकों में राजस्व पुलिस ही कानून व्यवस्था को बनाए रखने का काम करती है. राजस्व पुलिस व्यवस्था की मुख्य कड़ी पटवारी व् उसका चपरासी होता है. जो की लगभग एक थाना क्षेत्र के बराबर के गांवों में कानून व्यवस्था की देखभाल करता है. पहाड़ में प्रचलित इस राजस्व पुलिस को राजस्व एवं भू- लेख सम्बन्धी कार्यों के अतिरिक्त कानून-व्यवस्था देखने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता के अर्न्तगत पुलिस के अधिकार प्रदान किये गए हैं.
इस अदभुत पुलिस व्यवस्था को शुरू करने का श्रेय अंग्रेज शासकों को जाता है. सन 1819 में कुमायूं (वर्त्तमान में गढ़वाल व् कुमायूं अलग-अलग मंडल  हैं.) के तत्कालीन कमिश्नर जी. डब्ल्यु. ट्रेल ने पहाड़ में पटवारियों की नियुक्ति की थी. शुरू में पटवारी का काम राजस्व वसूली का था. सन 1815 में इस इलाके में अंग्रेजों के आगमन के पूर्व तथा उसके बाद भी पहाडों में आपराधिक घटनाएँ नाम मात्र के लिए थीं. लिहाजा अंग्रेजों ने कुछ प्रमुख स्थानों कोटद्वार, श्रीनगर, पौडी, अल्मोडा, नैनीताल आदि स्थानों पर कानून व्यवस्था का जिम्मा पटवारियों को सौंप दिया.
कुछ अपवादस्वरूप छोड़कर राजस्व पुलिस  की यह व्यवस्था पहाड़ में काफी सफल रही. अंग्रेज शासक इसे बेहतर व् बेहद सस्ती व्यवस्था मानते थे. यही कारण रहा की स्वतंत्रता के पश्चात सरकार ने हलके-फुल्के बदलावों के अलावा इस व्यवस्था को यथावत रहने दिया. वर्ष 1963 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने उ.प्र. पटवारी सेवा नियमावली बनाकर विधिवत चयन, पुलिस व् भू-लेख कार्यों की ट्रेनिंग, पदोन्नति व् पेंशन आदि की व्यवस्था भी कर डाली.
एक समय में पटवारी का पद बेहद शक्तिशाली व् महत्व का माना जाता था. कहा जाता है की अंग्रेज शासक अगर किसी व्यक्ति पर खुश होते थे, तो उसे पटवारी बना देते थे. मगर इधर के वर्षों में पहाड़ की राजस्व पुलिस व्यवस्था सरकारी उपेक्षा का शिकार बनी है. समय के साथ पर्वतीय इलाकों में अपराध भी बड़े हैं. राजस्व पुलिस आज भी बिना हथियारों के मात्र एक डंडे के बल पर अपने कार्यो को अंजाम दे रही है. मगर कार्यों के अनुरूप राजस्व पुलिस को संसाधन व् सुविधाएं नहीं मिल सकीं हैं. राजस्व पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए भी कोई ठोस प्रयास नहीं हुयें हैं.
-अजेन्द्र अजय

अब डॉ. तुलसी..................

गत दिवस अमर उजाला में बंगलुरु स्थित ख्याति प्राप्त इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस (आई आई एस) से श्री तथागत अवतार तुलसी द्वारा क्वांटम सॉफ्टवेर मैं पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने का समाचार पढ़ा तो एक बार पुनः उस चमत्कारिक प्रतिभा के लिए मन श्रद्धानवत हो गया। मैंने तुंरत फ़ोन उठाया और श्री तुलसी (अब डॉ तुलसी) को विश्व का छठवां ऐसा वैज्ञानिक, जिसने बहुत कम आयु में पीएचडी की उपाधि हासिल की, बनने के लिए हार्दिक बधाई दी।
मात्र 21 वर्ष की आयु में इतनी भरी भरकम उपलब्धि हासिल करने वाले डॉ तुलसी बातचीत में बिल्कुल सहज लग रहे थे। मैंने डॉ तुलसी को कुछ वर्ष पूर्व की गई उनकी श्री बदरीनाथ यात्रा का स्मरण दिलाया। अपनी माता श्रीमती चंचल प्रसाद व् पिता श्री तुलसी नारायण के साथ बदरीनाथ यात्रा पर गए डॉ तुलसी की आयु तब् संभवत 12 अथवा 14 वर्ष की थी। तब वह भौतिक विषय में M.Sc कर चुके थे। कम उम्र में गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में नाम दर्ज करा चुके तुलसी के व्यक्तित्व में तब गंभीरता के साथ साथ बालपन की तमाम प्रवृतियां मौजूद थीं। अन्य बालकों की तरह पढ़ाई के अलावा घूमना फिरना व् खेलकूद आदि भी उनकी अभिरुचि में शामिल था। बाल जिज्ञासा का भाव उनके स्वभाव में मुखर था। बदरीनाथ के समीप भारत के अन्तिम गाव माणा में जिस तरह से उन्होंने स्थानीय समाज, संस्कृति व् परम्पराओं को जानने व् समझने की कोशिश की, वह उनकी विभिन्न तथ्यौं के बारे में जिज्ञासा को प्रर्दशित करती है। संभवत यही कारक उनकी तमाम उपलब्धियौं के पीछे विद्यमान भी है।
---अजेन्द्र अजय

डॉ तुलसी (मध्य में) के साथ लेखक बाएं।