-अजेन्द्र अजय
मैं पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ की लन्दन ओलम्पिक में पदक विजेता रहे खिलाडियों को पूरा देश सर- माथे पर बिठाये हुए है. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर तमाम अन्य प्रमुख हस्तियों व विभिन्न संघठनो द्वारा इन पदक विजेताओं का जोरदार स्वागत किया जा रहा है. इन राष्ट्रगौरवों के सम्मान में कोई अपने को पीछे नहीं छोड़ना चाहता है. देशवासियों में इन भारत माँ के लाडलों के सम्मान को लेकर अभूतपूर्व उत्साह है, लेकिन एक अपना ये उत्तराखंड जहाँ के चार मंत्री पूरे उत्साह के साथ लन्दन ओलम्पिक में उपस्थित रहे. जिस प्रदेश का एक भी खिलाड़ी अपने को ओलम्पिक में जाने योग्य साबित नहीं कर सका, उस प्रदेश का ये प्रतिनिधित्व करते रहे. मगर उस प्रदेश में "रत्नों" की सच में कोई कद्र नहीं है.
प्रदेश सरकार तो छोड़िये न तो कांग्रेस पार्टी को अपने इन चार रत्नों की सुध लेने की होश है और न ही बात-बेबात पर च्यों-प्यों करने वाले तमाम संगठनो को. प्रदेश में भीषण आपदा आने के बावजूद इन रत्नों ने दिल पर पत्थर रख कर ओलम्पिक में जाने का कठोर फैसला लिया. सच में कितना कठिन होता है वो क्षण. जब इन रत्नों ने प्रदेश में आई भीषण आपदा के बारे में सुना होगा. कई गुमराह करने वाले तत्व इनको आपदा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने की सलाह भी दे रहे होंगे, लेकिन सच में यह शासकों की परीक्षा की घड़ी भी होती है, जब आपको अपने व्यक्तिगत जज्बातों को काबू में रख कर व्यापक हित सोचना पड़ता है. ये सब सोच कर मेरी आँखे टप-टप टपकने लगी हैं, की उस समय इन उत्तराखंडी सपूतों के दिमाग में एक तरफ आपदा पीड़ित क्षेत्रो की विभत्सता का दृश्य घूम रहा होगा तो दूसरी तरफ देश की खातिर लन्दन ओलम्पिक में भाग लेने की प्रतिबद्दता. आखिर में धरती के इन सपूतों को अपने दिल पर कई क्विंटल के पत्थर रख कर राष्ट्रहित में लन्दन जाना ही पड़ा. लेकिन यह बड़े अफ़सोस की बात है की इन सपूतों की स्वदेश वापसी पर किसी ने भी उनका स्वागत सम्मान नहीं किया न किसी ने बधाई दी.
एअरपोर्ट वो कब उतरे इसकी किसी को कानो- कान खबर नहीं. तिल का ताड़ बनाने वाले मीडिया ने स्वदेश वापसी तक की भी एक लाईन की खबर प्रकाशित नहीं की. बात-बेबात पर चापलूसी के लिए सम्मान समारोह आयोजित करने वाले संगठनों का रवैया भी इन सपूतों के प्रति उचित नहीं ठहराया जा सकता. उत्तराखंड के प्रबुद्ध व संवेदनशील समझे जाने वाले समाज से ऐसी उपेक्षा की उम्मीद नहीं की जा सकती थी. बहरहाल, लन्दन तक की दौड़-भाग के बावजूद इन होनहारों को समुचित सम्मान न मिला हो, लेकिन इतिहास में कहीं न कहीं उनका नाम दर्ज हो गया है. प्रदेश की जनता जब लन्दन ओलम्पिक व भारतीयों को पहली बार मिले छ पदकों की चर्चा करेगी तो इन उत्तराखंडी सपूतों का नाम भी स्मरण हो आएगा की इन्होने सच्चे संत की तरह उत्तरकाशी की आपदा से अपने को निर्विकार रख लन्दन कूच किया. और हां यदि कभी भविष्य में इस उत्तराखंड से कोई खिलाड़ी, ओलम्पिक में पदक की बात करना मेरे लिए छोटे मुंह बड़ी बात होगी, किन्तु शामिल भी हो गया तो उसका श्रेय किसको जायेगा.
इसलिए हे देवभूमि के गणों अब तो इन देवपुत्रों के बारे में अपनी धारणा उन्नत करो.