युगांतरकारी साबित होगी उत्तराखंड में रेल लाइन

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में रेल यातायात एक दिवास्वप्न जैसा था। मगर वर्ष 2014 में देश में मोदी सरकार के गठन पर इस सपने के साकार होने के आसार बने। प्रधानमंत्री मोदी ने जन आकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के लिए तेजी से निर्णय लिया। सत्ता संभालने के दो वर्ष के भीतर सरकार ने सारी औपचारिकताओं को पूरा कर लगभग 16 हजार करोड़ रुपए की धनराशि भी स्वीकृत कर दी। परियोजना की प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ- साथ प्रधानमंत्री भी सतत निगरानी कर रहे हैं। योजना का लक्ष्य वर्ष 2024-25 रखा गया है। अर्थात पहाड़ में रेल पहुंचने में 4-5 वर्ष ही शेष रह गए हैं।



                   - अजेंद्र अजय

उत्तराखंड के पहाड़ों में रेल यात्रा का सपना देखना सदियों पुराना है। ज्ञात इतिहास में पहाड़ों में रेल लाइन को लेकर एक संदर्भ वर्ष 1914 के प्रथम विश्व युद्ध के नायक विक्टोरिया क्रॉस दरबान सिंह नेगी से जुड़ा हुआ है। संदर्भ यह है कि प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजी साम्राज्य के तत्कालीन सम्राट जाॅर्ज पंचम ने युद्ध में गढ़वाल राइफल के नायक दरबान सिंह नेगी की वीरता को देखते हुए उन्हें सर्वोच्च सैनिक सम्मान विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किया। इस दौरान ब्रिटेन के महाराजा ने नेगी से उनकी इच्छाएं पूछी। कहा जाता है कि नेगी ने महाराजा से अपनी एक इच्छा कर्णप्रयाग तक रेल लाइन बिछाने के रूप में व्यक्त की।


1924 में अंग्रेज शासकों ने किया पहला सर्वे


इतिहास में वर्ष 1924 में अंग्रेजों द्वारा ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन का पहली बार सर्वे का विवरण मिलता है। इससे पूर्व अंग्रेज मसूरी तक रेल लाइन का सर्वे भी कर चुके थे। किन्तु तत्कालीन वैश्विक परिस्थितियों और द्वितीय विश्व युद्ध को लेकर चल रहे घटनाक्रम के कारण वो अपनी इन योजनाओं को अंजाम तक नहीं पहुंचा सके। रेल लाइन पहाड़ों तक पहुंचाने के पीछे अंग्रेजों का अपना स्वार्थ भी था। वो प्रकृति प्रेमी थे और उन्हें पहाड़ की जलवायु अनुकूल लगती थी। अंग्रेजों ने पहाड़ की कंदराओं की छान मारी थी। इसका प्रमाण यह है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में वन विभाग अथवा लोक निर्माण विभाग के अधिकांश विश्राम गृह अंग्रेजी शासन काल में निर्मित हुए हैं, जिन्हें डाक बंगला कहा जाता था। अंग्रेजों ने बीहड़, निर्जन व घोर जंगलों के बीच में डाक बंगला बनाए। इसलिए पुरानी पीढ़ी के कुछ लोग मानते थे कि यदि अंग्रेज भारत में कुछ समय और राज करते तो पहाड़ में रेल पहुंच जाती।
ऋषिकेश - कर्णप्रयाग रेलवे लाइन का मानचित्र 


मगर, दुर्भाग्य देखिए कि स्वतंत्रता प्राप्ति के वर्षों बाद तक भारत की  सरकारें पहाड़ पर रेल पहुंचाने की दिशा में इंच भर भी आगे नहीं बढ़ पाई। पहाड़ में रेल लाइन बिछाने की कल्पना पहाड़ जैसी दुष्कर लगने लगी थी। समय-समय पर विभिन्न स्तरों पर ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन निर्माण की मांग उठती रही। मगर यह मांग अनसुनी होती रही। पहाड़वासियों को भी कर्णप्रयाग तक रेल लाइन एक तरह से दिवास्वप्न ही लगने लगी थी।

वर्ष 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार गठित होने पर उत्तराखंड वासियों के बहुप्रतीक्षित स्वप्न के मूर्त रूप लेने के आसार बने। मोदी सरकार ने कर्णप्रयाग तक रेल लाइन बिछाने के संकल्प को व्यक्त किया और तमाम औपचारिकताओं को पूरा करते हुए सत्ता संभालने के लगभग दो वर्ष के भीतर वर्ष 2016 में इस रेल परियोजना को 16,216 करोड़ की वित्तीय स्वीकृति भी प्रदान कर दी।

125 किमी रेल लाइन में 17 सुरंग, 35 पुल


125 किमी लंबी इस रेलवे लाइन के निर्माण का लक्ष्य वर्ष 2024-25 तक रखा गया है। इस रेल परियोजना में 12 स्टेशन, 17 सुरंगों व 35 पुलो का निर्माण किया जाएगा। यात्रियों के लिए रोमांचकारी साबित होने वाली इस रेलवे लाइन में सबसे लंबी सुरंग 15 किमी की होगी। रेलवे लाइन के निर्माण के बाद उत्तराखंड जहां परिवहन कनेक्टविटी की दृष्टि से लंबी छलांग लगा सकेगा, वहीं पर्यटकों व तीर्थयात्रियों के लिए आवागमन का एक सुलभ व सस्ता साधन उपलब्ध हो सकेगा। रेल यातायात शुरू होने पर ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक की दूरी, जिसे पूरा करने में सड़क मार्ग से लगभग 6 घंटे का समय लगता है, वो मात्र 2 घंटे में पूरी हो सकेगी। अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़े उत्तराखंड में इस परियोजना का सामरिक कारणों से बेहद महत्व है। मगर इसके साथ ही पलायन जैसी समस्या से ग्रस्त राज्य के लिए रेल लाइन उम्मीदों की कई किरणों को साथ लेकर आएगी, यह मानना गलत नहीं होगा।

निर्माणाधीन न्यू - ऋषिकेश रेलवे स्टेशन

केंद्र सरकार द्वारा इस परियोजना को राष्ट्रीय महत्व का घोषित किया गया है। इसकी सतत् निगरानी स्वयं प्रधानमंत्री मोदी द्वारा की जा रही है। रेल विकास निगम लिमिटेड द्वारा निर्माणाधीन इस रेल परियोजना की प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा भी लगातार समीक्षा की जा रही है। गत बुधवार को मुख्यमंत्री रावत के समक्ष अधिकारियों ने बताया कि रेल परियोजना के लिए जरूरी भूमि का अधिग्रहण कार्य पूर्ण कर लिया गया है। मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को क्षतिपूर्ति के मामलों का निपटारा जल्द से जल्द करने का निर्देश दिया है। बैठक में रेलवे अधिकारियों ने जानकारी दी है कि वीरभद्र-न्यू ऋषिकेश सेक्शन का कार्य फरवरी 2020 तक पूर्ण हो जाएगा। न्यू ऋषिकेश से देवप्रयाग तक वर्ष 2023-24 व देवप्रयाग से कर्णप्रयाग तक का कार्य 2024- 25 तक पूर्ण होगा। यानि कि पहाड़ में रेल का सपना पूरा होने में 4 से 5 वर्ष का समय ही शेष रह गया है।

सुरंग निर्माण में जुटे श्रमिक

रेलवे के क्षेत्र में मोदी सरकार की उत्तराखंड के लिए एक अन्य सौगात चार धामों को रेल परिवहन से जोड़ने की है। लगभग 327 किमी लंबी इस परियोजना से उत्तराखंड स्थित यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ व बद्रीनाथ को रेल मार्ग से जोड़ा जाएगा। लगभग 40 हजार करोड़ से अधिक की इस परियोजना का लोकेशन सर्वे जारी है। यह सर्वे जनवरी 2020 तक पूरा कर लिया जाएगा। चारधाम रेल परियोजना में 21 रेलवे स्टेशन व 61 टनल प्रस्तावित हैं।

बहरहाल, यह दोनों रेल परियोजनाएं उत्तराखंड के विकास में एक नया आयाम जोड़ने में मददगार साबित होंगी। रेल परियोजनाओं के निर्माण के दौरान रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। प्रदेश में आर्थिकी का नया संचार होगा। और जब यह परियोजनाएं मूर्त रूप लेंगी, तब रेल पहाड़ की कष्टप्रद व समय साध्य यात्रा से लोगों को छुटकारा दिलाएगी। अंततः, मोदी सरकार का यह प्रयास उत्तराखंड के लिए युगांतरकारी और नया इतिहास रचने वाला होगा।


इन रत्नों का भी तो कुछ सम्मान करो...


-अजेन्द्र अजय

 मैं पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ की लन्दन ओलम्पिक में पदक विजेता रहे खिलाडियों को पूरा देश सर- माथे पर बिठाये हुए है. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर तमाम अन्य प्रमुख हस्तियों व विभिन्न संघठनो द्वारा इन पदक विजेताओं का जोरदार स्वागत किया जा रहा है. इन राष्ट्रगौरवों के सम्मान में कोई अपने को पीछे नहीं छोड़ना चाहता है. देशवासियों में इन भारत माँ के लाडलों के सम्मान को लेकर अभूतपूर्व उत्साह है, लेकिन एक अपना ये उत्तराखंड जहाँ के चार मंत्री पूरे उत्साह के साथ लन्दन ओलम्पिक में उपस्थित रहे. जिस प्रदेश का एक भी खिलाड़ी अपने को ओलम्पिक में जाने योग्य साबित नहीं कर सका, उस प्रदेश का ये प्रतिनिधित्व करते रहे. मगर उस प्रदेश में "रत्नों" की सच में कोई कद्र नहीं है.

प्रदेश सरकार तो छोड़िये न तो कांग्रेस पार्टी को अपने इन चार रत्नों की सुध लेने की होश है और न ही बात-बेबात पर च्यों-प्यों करने वाले तमाम संगठनो को. प्रदेश में भीषण आपदा आने के बावजूद इन रत्नों ने दिल पर पत्थर रख कर ओलम्पिक में जाने का कठोर फैसला लिया. सच में कितना कठिन होता है वो क्षण. जब इन रत्नों ने प्रदेश में आई भीषण आपदा के बारे में सुना होगा. कई गुमराह करने वाले तत्व इनको आपदा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने की सलाह भी दे रहे होंगे, लेकिन सच में यह शासकों की परीक्षा की घड़ी भी होती है, जब आपको अपने व्यक्तिगत जज्बातों को काबू में रख कर व्यापक हित सोचना पड़ता है. ये सब सोच कर मेरी आँखे टप-टप टपकने लगी हैं, की उस समय इन उत्तराखंडी सपूतों के दिमाग में एक तरफ आपदा पीड़ित क्षेत्रो की विभत्सता का दृश्य घूम रहा होगा तो दूसरी तरफ देश की खातिर लन्दन ओलम्पिक में भाग लेने की प्रतिबद्दता. आखिर में धरती के इन सपूतों को अपने दिल पर कई क्विंटल के पत्थर रख कर राष्ट्रहित में लन्दन जाना ही पड़ा. लेकिन यह बड़े अफ़सोस की बात है की इन सपूतों की स्वदेश वापसी पर किसी ने भी उनका स्वागत सम्मान नहीं किया न किसी ने बधाई दी.

एअरपोर्ट वो कब उतरे इसकी किसी को कानो- कान खबर नहीं. तिल का ताड़ बनाने वाले मीडिया ने स्वदेश वापसी तक की भी एक लाईन की खबर प्रकाशित नहीं की. बात-बेबात पर चापलूसी के लिए सम्मान समारोह आयोजित करने वाले संगठनों का रवैया भी इन सपूतों के प्रति उचित नहीं ठहराया जा सकता. उत्तराखंड के प्रबुद्ध व संवेदनशील समझे जाने वाले समाज से ऐसी उपेक्षा की उम्मीद नहीं की जा सकती थी. बहरहाल, लन्दन तक की दौड़-भाग के बावजूद इन होनहारों को समुचित सम्मान न मिला हो, लेकिन इतिहास में कहीं न कहीं उनका नाम दर्ज हो गया है. प्रदेश की जनता जब लन्दन ओलम्पिक व भारतीयों को पहली बार मिले छ पदकों की चर्चा करेगी तो इन उत्तराखंडी सपूतों का नाम भी स्मरण हो आएगा की इन्होने सच्चे संत की तरह उत्तरकाशी की आपदा से अपने को निर्विकार रख लन्दन कूच किया. और हां यदि कभी भविष्य में इस उत्तराखंड से कोई खिलाड़ी, ओलम्पिक में पदक की बात करना मेरे लिए छोटे मुंह बड़ी बात होगी, किन्तु शामिल भी हो गया तो उसका श्रेय किसको जायेगा.

इसलिए हे देवभूमि के गणों अब तो इन देवपुत्रों के बारे में अपनी धारणा उन्नत करो.







एक अनोखी पुलिस व्यवस्था

उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में पुलिस कार्यों का निर्वहन करने वाली राजस्व पुलिस एक अदभुत पुलिस व्यवस्था है. प्रदेश के पर्वतीय इलाकों में मुख्य मोटर मार्गों पर स्थित नगरों व् कस्बों को छोड़कर शेष 60% इलाकों में राजस्व पुलिस ही कानून व्यवस्था को बनाए रखने का काम करती है. राजस्व पुलिस व्यवस्था की मुख्य कड़ी पटवारी व् उसका चपरासी होता है. जो की लगभग एक थाना क्षेत्र के बराबर के गांवों में कानून व्यवस्था की देखभाल करता है. पहाड़ में प्रचलित इस राजस्व पुलिस को राजस्व एवं भू- लेख सम्बन्धी कार्यों के अतिरिक्त कानून-व्यवस्था देखने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता के अर्न्तगत पुलिस के अधिकार प्रदान किये गए हैं.
इस अदभुत पुलिस व्यवस्था को शुरू करने का श्रेय अंग्रेज शासकों को जाता है. सन 1819 में कुमायूं (वर्त्तमान में गढ़वाल व् कुमायूं अलग-अलग मंडल  हैं.) के तत्कालीन कमिश्नर जी. डब्ल्यु. ट्रेल ने पहाड़ में पटवारियों की नियुक्ति की थी. शुरू में पटवारी का काम राजस्व वसूली का था. सन 1815 में इस इलाके में अंग्रेजों के आगमन के पूर्व तथा उसके बाद भी पहाडों में आपराधिक घटनाएँ नाम मात्र के लिए थीं. लिहाजा अंग्रेजों ने कुछ प्रमुख स्थानों कोटद्वार, श्रीनगर, पौडी, अल्मोडा, नैनीताल आदि स्थानों पर कानून व्यवस्था का जिम्मा पटवारियों को सौंप दिया.
कुछ अपवादस्वरूप छोड़कर राजस्व पुलिस  की यह व्यवस्था पहाड़ में काफी सफल रही. अंग्रेज शासक इसे बेहतर व् बेहद सस्ती व्यवस्था मानते थे. यही कारण रहा की स्वतंत्रता के पश्चात सरकार ने हलके-फुल्के बदलावों के अलावा इस व्यवस्था को यथावत रहने दिया. वर्ष 1963 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने उ.प्र. पटवारी सेवा नियमावली बनाकर विधिवत चयन, पुलिस व् भू-लेख कार्यों की ट्रेनिंग, पदोन्नति व् पेंशन आदि की व्यवस्था भी कर डाली.
एक समय में पटवारी का पद बेहद शक्तिशाली व् महत्व का माना जाता था. कहा जाता है की अंग्रेज शासक अगर किसी व्यक्ति पर खुश होते थे, तो उसे पटवारी बना देते थे. मगर इधर के वर्षों में पहाड़ की राजस्व पुलिस व्यवस्था सरकारी उपेक्षा का शिकार बनी है. समय के साथ पर्वतीय इलाकों में अपराध भी बड़े हैं. राजस्व पुलिस आज भी बिना हथियारों के मात्र एक डंडे के बल पर अपने कार्यो को अंजाम दे रही है. मगर कार्यों के अनुरूप राजस्व पुलिस को संसाधन व् सुविधाएं नहीं मिल सकीं हैं. राजस्व पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए भी कोई ठोस प्रयास नहीं हुयें हैं.
-अजेन्द्र अजय

अब डॉ. तुलसी..................

गत दिवस अमर उजाला में बंगलुरु स्थित ख्याति प्राप्त इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस (आई आई एस) से श्री तथागत अवतार तुलसी द्वारा क्वांटम सॉफ्टवेर मैं पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने का समाचार पढ़ा तो एक बार पुनः उस चमत्कारिक प्रतिभा के लिए मन श्रद्धानवत हो गया। मैंने तुंरत फ़ोन उठाया और श्री तुलसी (अब डॉ तुलसी) को विश्व का छठवां ऐसा वैज्ञानिक, जिसने बहुत कम आयु में पीएचडी की उपाधि हासिल की, बनने के लिए हार्दिक बधाई दी।
मात्र 21 वर्ष की आयु में इतनी भरी भरकम उपलब्धि हासिल करने वाले डॉ तुलसी बातचीत में बिल्कुल सहज लग रहे थे। मैंने डॉ तुलसी को कुछ वर्ष पूर्व की गई उनकी श्री बदरीनाथ यात्रा का स्मरण दिलाया। अपनी माता श्रीमती चंचल प्रसाद व् पिता श्री तुलसी नारायण के साथ बदरीनाथ यात्रा पर गए डॉ तुलसी की आयु तब् संभवत 12 अथवा 14 वर्ष की थी। तब वह भौतिक विषय में M.Sc कर चुके थे। कम उम्र में गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में नाम दर्ज करा चुके तुलसी के व्यक्तित्व में तब गंभीरता के साथ साथ बालपन की तमाम प्रवृतियां मौजूद थीं। अन्य बालकों की तरह पढ़ाई के अलावा घूमना फिरना व् खेलकूद आदि भी उनकी अभिरुचि में शामिल था। बाल जिज्ञासा का भाव उनके स्वभाव में मुखर था। बदरीनाथ के समीप भारत के अन्तिम गाव माणा में जिस तरह से उन्होंने स्थानीय समाज, संस्कृति व् परम्पराओं को जानने व् समझने की कोशिश की, वह उनकी विभिन्न तथ्यौं के बारे में जिज्ञासा को प्रर्दशित करती है। संभवत यही कारक उनकी तमाम उपलब्धियौं के पीछे विद्यमान भी है।
---अजेन्द्र अजय

डॉ तुलसी (मध्य में) के साथ लेखक बाएं।